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१. वक्ता का प्रयोजन
अर्थात एक बात पर जोर देकर दूसरी बात को उस समय दवाने का प्रयत्न करता है । इस अवसर पर श्रोता की दृष्टि भी यदि वक्ता के अनुरूप ही रहे तब तो वह कुछ समझ सकता है, परन्तु यदि श्रोता की दृष्टि किसी दूसरे अग को पढ़ने का प्रयत्न करने लगे, अर्थात वक्ता की दृष्टि के अनुरूप न रहने पाये तो वह उसका प्रयोजन पढने मे असफल रहेगा । अत उसे वक्ता की वह बात सुनकर या तो कुछ भी समझ नही आयेगा, या उसके हृदय मे वस्तु के अगके स्थान पर वक्ता के प्रति सशय प्रवेश कर जायेगा, और वह आगे सुनने की जिज्ञासा भी खो बैठेगा। इस प्रकार भी हित के स्थान पर अहित हो जाना सम्भव है । अतः नय की स्थापना करते समय यहा यह बता देना आवश्यक है कि वक्ता के द्वारा बोले गये प्रत्येक शब्द मे उसका कोई विशेष प्रयोजन व अभिप्राय छिपा रहता है । श्रोता को उसका परिज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है ।
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नय की स्थापना
वक्ता जो कुछ बात करता है या विचारक जो कुछ विचारता है, वह वस्तु को नही बल्कि ज्ञान को देखकर ही बोलता विचारता है । इसलिये कभी तो वह वर्तमान काल सम्बन्धी वस्तु के सम्बन्ध मे कहने लगता है, और कभी भूत या भविष्यत काल सम्वन्धी वस्तु के सम्बन्ध मे । सम्पूर्ण त्रिकाली प्रमाण ज्ञानरूप चित्रण को एक साथ कहने में असमर्थ, तथा एक साथ समझाना असम्भव होने के कारण, वह कोई एक एक अंग उस सम्पूर्ण मे से निकालकर दिखाने का प्रयत्न करता है । कौनसा अग कर्ब निकालकर दिखाये, यह कोई नियम नही । क्योकि ज्ञान में पड़े ३० अगो के चित्रण में कोई आगे पीछे रहने का नियम नही है । एक रसरूप वस्तु मे ऐसा कोई नियम हो भी नही सकता । यह तो वक्ता की मर्जी पर है कि जो भी अंग वह चाहे पहिले कहदे, और जो भी चाहे पीछे कहदे । कथन करने के लिये वास्तव में उसका कुछ अपना स्वार्थ या प्रयोजन आडे आता है । जैस कि पाकशाला मे अग्नि जलाते समय तो हाथ सैकने का