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८. सप्त भगी .
८. सातों भंगो के लक्षण,
एक ही समय दिखाई अवश्य देते हैं। वस्तु मे यह एक - रस रूप, से पड़े है परन्तु वचनों द्वारा क्रम पूर्वक ही कह कर बताये जा सकते है युगपत नही । जिस प्रकार अद्वैत रूप से वस्तु में है उस प्रकार वचन मे नही आते और जिस प्रकार वचन मे आते है 'उस प्रकार वस्तु मे नही है। यदि . कोई पूछे कि क्रम पूर्वक न कह कर मुझे तो किसी ऐसे ढंग से - बताइये कि वस्तु के अनुरूप ही सुनने मे आवे क्रम पूर्वक सुनने मे तो, उलझन पड़ती है, 'तब आप क्या कहेगे ?' इस प्रकार तो कहा नहीं जा सकता यही तो कहेगे। बस यहा से ही तीन अंग निकल आये-एक विधि रूप अंग जैसे एक, नित्य, नियति आदि; दूसरा निषेध रूप अंग जैसे अनेक, अनित्य, अनियति आदि तीसरा अवक्तव्य रूप अग। यह तीनों ही सप्त भगी के मूल है, क्योंकि शेष चार इन्ही तीनो के सयोगी भग है ।
अस्ति का अर्थ केबल अस्तित्व गुण नही परन्तु वस्तु मे दिखने वाले विधि आत्मक सर्व धर्म है और इसी प्रकार नास्ति का अर्थ निषेधात्मक सर्व धर्म है । कथन को सरल व सम्भव बनाने के लिये विधि के प्रतिनिधि रूप 'अस्ति' तथा निषेध के प्रतिनिधि रूप 'नास्ति' के आधार पर ही सप्त भगी सिद्धान्त की स्थापना की गई है। __ स्व चतुष्टय से अस्ति ही है नास्ति नही, और पर चतुष्टय से नास्ति ही है अस्ति नही, सामान्य रूप से नित्य ही है अनित्य नहीं और विशेष रूप से अनित्य ही है नित्य नही, सामान्य रूप से अभेद ही है भेद नही और विशेष रूप से भेद ही है अभेद नही । इस प्रकार प्रत्येक एक एक धर्म पर दो मूल अगो के आधार पर विधि व निषेध या अस्ति व नास्ति का विकल्प किया जा सकता है । किसी धर्म को दर्शाने के लिये केवल विधि दर्शाना ही पर्याप्त नहीं बल्कि उसमें दृढ़ता लाने के लिये उससे विरोधी धर्म का निषेध किया जाना भी साथ साथ आवश्यक है, अन्यथा संशय व अनध्यवसाय का निराकरण नही हो सकता।