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७ आत्मा व उसके अग
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८. पारिणामिक भाव
जैसेकि सिद्ध प्रभु का पूर्ण वीतराग चारित्र किसी पर पदार्थ का आश्रय ग्रहण करने के रूप या त्याग करने रूप नही है परन्तु इस की उत्पत्ति, पर के त्याग पूर्वक हुई थी, इतना ही इसमे पर सापेक्ष पना है।
क्षायिकादि चार भावों को समझ लेने के पश्चात् उस भाव को ८. पारिणामिक प्रमुखतः समझना योग्य है, जिसके उपर कि यह चारो ___ भाव भाव नृत्य कर रहे है । उसे पारिणामिक भाव कहते है। से त्रिकाली वस्तु का स्वभाव समझना, जिसमे कि पर पदार्थ के ग्रहण की यात्याग की, निकटता की व दूरता की, कर्मो के उदय की या क्षय की कोई अपेक्षा नही। इसको समझना जरा कठिन पड़ेगा, क्यो कि इसकी त्रिकाली शुध्द भाव के रूप में प्रतीति होती है। शुध्द भाव दो प्रकार के हो जाते है । एक तो पर की अपेक्षा का अभाव होने पर प्रगट क्षायिक व औपशमिक भाव, और एक वह जिसमे पर की अपेक्षा न थी और न हटी है, जो सदा से शुद्ध था और सदा शुद्ध रहेगा । यहा बड़ा संशय खड़ा हो जाता है और कदाचित म्रम का कारण भी बन बैठता है । अतः सूक्ष्म दृष्टि से समझने का प्रयत्न करना । . ___ यह कथन त्रिकाली ध्रुव शक्ति या भाव की अपेक्षा विचारा जाना चाहिये । यदि व्यक्ति पर अर्थात् प्रगट जो अनुभव मे आ रहा है ऐसी पर्याय पर दृष्टि चली गई तो अनिष्ट हो जायेगा । क्योकि या तो यह प्रश्न उठ खड़ा होगा कि राग मे रहते हुये भी आत्मा को शुद्ध कैसे कहा जा सकता है, और या यह अभिमान उत्पन्न हो जायंगा कि मैं तो त्रिकाली शुद्ध हूं अतरागद्वेषादि मेरा अपराध ही नहीं, मै इन्हें करता ही नही, वर्तमान में जो देखने में आता है वह तो भ्रम मात्र है । अत: व्यक्ति और शक्ति का विवेक रखकर ही समझना योग्य है । व्यक्त रूप जितने भी भाव है वह तो सब के सब औदायिकादि चारो मे से ही कोई न कोई हो सकते है । ...