________________
७. आत्मा व उसके अग
१२६
७. क्षायिकादि चार-रभाव
तो सादि सान्त है । कोई भाव. ऐसा है जो पहिले से चला आता है, कभी पैदा नहीं हुआ था परन्तु विनष्ट अवश्य हो जाता है, ऐसे भावो को अनादि सान्त कहते है । कोई भाव ऐसा है जो पेदा होकर फिर कभी विनष्ट नही होता, उसे सादि अनन्त कहते है । सो औदयिक भाव तो अनादि सान्त है तथा सादि सान्त भी औपशमिक भाव सादि सान्त ही है । क्षायिक भाव सादि अनन्त ही है । और क्षायोपशमिक भाव सादि सान्त व अनादि सान्त दोनों है । ज्ञान का क्षायोपशमिक भाव अनादि सान्त है तया शेष गुणों का सादि सान्त ।
क्यों कि इन चारों में आदि व अन्त की अपेक्षाये पडती है इसलिये इन्हें उत्पन्न ध्वसो भाव कहा जाता है । इसी से यह पर्याय रूप है, शक्ति सामान्य रूप या गुण रूप नहीं है । क्योकि यह चारो ही भाव अन्य वाह्य पदार्थो के आश्रय के सद्भाव या अभाव से उत्पन्न होते हैं इसलिये इन्हे पराश्रित या पर सापेक्ष भाव कहा जाता है । जैसे कि क्रोध भाव, बिना किसी दूसरे व्यक्ति की ओर लक्ष्य ले जाय उत्पन्न नहीं हो सकता । हिताहित का विवेक भी या तो लोक के किसी पदार्थ के ग्रहण की ओर लक्ष्य ले जाकर उत्पन्न होता है, या उस पदार्थ को त्यागने के प्रति लक्ष्य ले जाकर उत्पन्न होता है । और इस प्रकार सर्व अशुद्ध भाव तो किसी पदार्थ का आश्रय लेने से तथा सर्व शुद्ध भाव उस उस पदार्थ का आश्रय छोडने से उत्पन्न होते है । शुद्धाश द्ध भाव किंचित ग्रहण व किंचित त्याग से उत्पन्न होते है। इसलिये ये चारो ही भाव पर सापेक्ष है । अथवा कर्मों के उदय व क्षय आदि की अपेक्षा रखते हैं, इसलिये पर सापेक्ष है । कर्मो के उदय से अर्थात् उनके जागृत रहने से होवे सो औदयिक, कर्मों के क्षय अर्थात् विदग्ध हो जाने से उत्पन्न हो सो क्षायिक, और कर्मों के क्षयोपशम से अर्थात् किंचित दब जाने से व किंचित जागृत रहने से उत्पन्न हो सो क्षायोपशमिक भाव कहलाते है । इसलिये यह चारों पर के सद्भाव या अभाव की अपेक्षा रखते हैं । यद्यपि क्षायिक भाव