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७ आत्मा
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६ शुद्धा शुद्ध भाव
परिचय इस प्रकार इन चार शक्तियों का सक्षिप्त परिचय दिया गया । ६ . शुद्धाशुद्ध भाव और भी बहुत कुछ है पर समय थोड़ा होने के कारण
परिचय विस्तार नही किया जा सकता यहा इतना ही समझना चाहिये कि आत्मा तो ज्ञानपुज है । यह ज्ञान ही अनेक प्रकार से प्रगट होकर भिन्न भिन्न शक्तिों रूप बन बैठता है ।
ऊपर की चारों शक्तियो मे से ज्ञान मे तो शुद्ध पना व अशुद्ध पना होता नही । वहा तो हीन ज्ञान पना न अधिक ज्ञान पना होता है । सो वहा तो हीन ज्ञान पने का नाम ही विभाव व ज्ञान की अशुद्धता है और अधिक या पूर्ण ज्ञानपने का नाम ही स्वभाव या ज्ञान की शुद्धता है । पर चारित्र, श्रद्धा व वेदना, मे शुद्धपना व अशुद्ध पना होता है, जैसा कि दर्शा दिया गया । शाति रूप से प्रगट होने को यहा शुद्ध पना और अशाति रूप से प्रगट होने को अशुद्ध पना कहते है । सर्वत्र ही यह शुद्ध पना व अशुध्द पना तीन प्रकार का हो सकता है। १. पूर्ण शुध्द, पूर्ण अशुध्द, तथा ३. शुध्द व अशुध्द का मिश्रण । पूर्ण का अर्थ है पूर्ण शाति मे स्थित होने पर प्रगटे भाव, पूर्ण अशुद्ध का अर्थ है पूर्ण अशाति या चिन्ताओं में उलझे हुए भाव और शुध्दाशुध्द रूप मिश्रित भावों का अर्थ है कुछ शान्ति तथा साथ ही साथ कुछ अशान्ति मे बसने वाले भाव ।
पूर्ण शुद्ध व पूर्ण अशुद्ध तो ठीक प्रकार समझ मे आ जाता है पर शुद्धाशुद्ध रूप मिश्रित भाव कुछ उलझन उत्पन्न कर रहा है । इस को स्पष्ट करने का प्रयत्न करता हु । देखो,ये घर पर बिलो कर निकाला गया एक सेर पूर्ण शुद्ध धी है और यह है एक सेर पूर्ण अशुद्ध व नकली डालडा। यह लो दोनो को मिला दीजिये । अब यह मिला हुआ वह घी शुद्ध कहलायेगा या अशुद्ध ? कहना होगा कि न पूर्ण शुद्ध, न पूर्ण अशुद्ध वल्कि इसे तो मिश्रित कहना होगा, या शुद्धाशुद्ध कहना होगा। यद्यपि शुद्ध व अशुद्ध तो एक एक ही कीटि के हो सकते है, पर शुद्धाशुद्ध