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७. आत्मा व उसके अंग ११८
२ ज्ञान ऐसा न हुआ होता तो अब भी इन इंद्रियो को यह काम करते रहना चाहिये था । तथा अन्य भी।
२. ज्ञान यह उपर बताई गई सर्व शक्तिये ज्ञान रूप ही समझना ज्ञान नाम जानने का है । जानना उपर प्रमाण इन पांच इन्द्रियों से भी हो रहा है तथा एक अदृष्ट इन्द्रिय अर्थात् मन से भी मन से होने वाला जानना विचारणाओं रूप है । आत्मा इन्द्रियों वाला नही। यह जानना व विचारणा उसीका काम है । वस इसे ही ज्ञान कहते हे आत्मा की समस्त शक्तिया चाहे वह चारित्र हो -या श्रद्धा व वेदना, सर्व विचारणात्मक है या प्रकाशात्मक है अत परमार्थत सब ही ज्ञान रूप है । वर्तमान मे यह जान दो प्रकार से अनुभव मे आ रहा है एक तो इन छहों इन्द्रियों के आधार पर होने वाला तथा दूसरा शेख चिल्ली की कल्पनाओं वत्, कड़ी बद्ध कोरी कल्पनाओं रूप से, या किसी भी पदार्थ को जानने के साथ साथ उसमे इष्टता व अनिष्टता की कल्पना रूप से, जिन कल्पनाओं का आधार कोई वस्तु नही होती, बल्कि अन्दर मे पड़े ही कुछ पहिले आकर होते है । उन आकारो का स्मरण कर करके ही वे कल्पना जागृत हुआ करती है । इन्द्रियो का ज्ञान किसी वस्तु को आश्रय करके ही वर्तता है । अतं ज्ञान दो प्रकार का कहा जा सकता है। इन्द्रिय ज्ञान व कल्पना विज्ञान । कल्पना विज्ञान विचारणा रूप होता है यह विचारणा दो प्रकार की होती है एक तो किसी वस्तु को सामने रख कर की जाने वाली तथा एक केवल 'स्मृति व अनुमान के आधार पर । पहिली जाति की विचारणा को इन्द्रिय ज्ञान मे ही सम्मिलित कर लीजिये और दूसरी को पृथक रहने दीजिये । इस इन्द्रिय ज्ञान को हम व आगम ‘मतिज्ञान' इस नाम से पुकारते हैं तथा दूसरे कल्पनाओ रूप ज्ञान को 'श्रुत ज्ञान' कहा जाता है। यह दोनों हम मे ही नही बल्कि चीटी आदि क्षुद्र जन्तुओ तक मे देखने मे आता है । इसके अतिरिक्त अवधि ज्ञान कुछ भूत व भविष्यत