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६. द्रव्य सामान्य
पर
२. द्रव्य व उसके अंगो का परिचय
है । या वृक्ष मे लगे टहनी फूलो पत्तों वत भी वह समूह नहीं है क्योंकि यहां यद्यपि वह समूह किसी के द्वारा बांध कर बनाया तो नहीं गया है, पर बखेरा अवश्य जा सकता है तथा उन डाली पत्तों आदि की पृथकता भी दृष्ट है । यहां तो समूह से तात्पर्य एक रस रूप होकर रहना है, जो समूह न बनाया जा सके और न बिगाड़ा जा सके । जैसे कि आम में रहने वाले उसके गुण न उसमे भरे जा सकते है और न निकाले जा सकते है । तथा जिन गुणों को कल्पना द्वारा पृथक कर लेने पर आम नाम की कोई बोरी रूप वस्तु शेष रह जाये ऐसा भी नहीं है । इस प्रकार वस्तु अनेक गुण व पर्यायो का एक रस रूप पिण्ड है।
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२ गुण वस्तु के सामान्य अंग का नाम है जो वस्तु मे सर्वदा पाया जाता है । भले ही उसकी अवस्था बदल जाये पर वह अपनी जाति सामान्य या अभुक इन्द्रिय का विषय सामान्य बदल कर दूसरी इन्द्रिय का विषय बन बैठे ऐसा कभी नही हो सकता जैसे कि आम का हरा पना बदल कर भले पीला हो जाये पर नेत्र इन्द्रिय का विषय सामान्य रंग पना हर हालत मे उसमे विद्यमान रहता है । अतः भले ही लौकिक व्यवहार मे हम हरे पीले आदि की रग गुण समझते हों पर वह गुण नहीं, वह तो बदलने वाला अंग है । रंग नाम का गुण तो इन हरे पीले पने मे, एक नेत्र इन्द्रिय के विषय सामान्य रूप से रहने वाला स्थायी अंग है, जो हरे पने मे भी है और पीले पने मे भी वास्तव में जो भी अंग दृष्ट होता है वह पर्याय ही होती है ।
गुण व वस्तु कभी अनुभव में नही ली जा सकती, पर बुद्धि के द्वारा पकड़ी जा सकती है, अनुभव मे तो वस्तु के अनेक गुणों की उस समय की पर्याय ही आया करती है । और इसी लिये उस समय सम्पूर्ण वस्तु उन पर्यायों के सम्ह रूप ही भासती है । पर्यायों को ही व्यवहार मे गुण रूप स्वीकार करके उसे उन गुणों के समुदाय रूप कह