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नमिऊण-स्तोत्रम्
नमिऊण-स्तोत्रम्
-(मूल) खर-पवणुद्धय-वण-दव-जालावलि-मिलिय-सयल-दुम-गहणे। डझंत-मुख-मय-वहु-भीसण-रव-भीसणम्मि वणे 16 ॥ जग-गुरुणो कम-जुअलं निव्वाविअ-सयल-तिहुअणाभो। जे संभरति मणुआ न कुणइ जलणो भयं तेसिं॥7॥
-(मूल)विलसंत-भोग-भीसण-फुरिआरुण-नयण-तरल-जीहालं।
उग्ग-भुअंगं नव-जलय-सत्थहं भीसणायारं 18 ॥ मन्नंति कीड-सरिसं दूर-परिच्छुड्ढ-विसम-विस वेगा। | तुह नामक्खर-फुड-सिद्ध-मंत-गुरुआ नरा लोए॥9॥
(खर-पवणुद्धय-वण-दव-जालावलि-मिलिय-सयल-दुम-गहणे) तीक्ष्ण-पवन द्वारा वृद्धि को प्राप्त हुए दावानल की ज्वाला-पंक्तियों के संपर्क में समस्त वृक्षों के आ जाने से जो दुर्गम है तथा (डझंत-मुद्ध-मय-वहु-भीसण-रव-भीसणम्मि) जलती हुई भोली। हिरणियों की भीषण ध्वनियों के कारण जो भयंकर है, ऐसे (वणे)वन में,(निव्वाविअ-। सयल-तिहुअणाभोअं) शीतल कर दिया है सकल त्रिभुवनरूपी मैदान को जिसने, ऐसे (जग-गुरुणो कम-जुअल) जगत-गुरु के चरण-युगल का (जे मणुआ) जो मनुष्य (संभरति ) स्मरण करते हैं, (तेसिं) उनके लिये (जलणो) अग्नि (भयं) भय (ण कुणइ) नहीं करती।
(लोए) लोक में (तुह) आपके (नामक्खर-फुड-सिद्ध-मंत गुरूआ) नामाक्षररूपी प्रगट सिद्ध-मन्त्र से जो बड़े हैं तथा (दूरपरिच्छुड्ड-विसम विस-वेगा) सर्प के विषम-विष|संबन्धी-वेगों को जिनने दूर फेंक दिया है, ऐसे (नरा) पुरुष (विलसंत-भोग-भीसणफुरिआरुण-नयण-तरल-जीहालं) फन फैलाये हुए भीषण चमकीले लाल नेत्रों वाले एवं चंचल-जिला-युक्त(नव-जलय-सत्थह) नवीन मेघ के समान काले और(भीसणायारं) भयंकर आकृति वाले (उग्ग-भुअंगं) उग्र भुजंग को (कीड-सरिस ) क्षुद्र-कीड़ा जैसा (मन्नंति) मानते हैं।
- (पद्यानुवाद) - पवन-वेग से सब वृक्षों पर, भीषण ज्वालाएँ आयीं, लपटों की चपेट में चीखे, दीन हिरणियाँ घबरायीं। तो भी भक्त नहीं घबराता, उष्ण-धधकते उस वन से, त्रिभुवन को शीतलदायी, जग-गुरु के पद-सुमिरन से।
(पद्यानुवाद) चिनगारी-सम लाल-नयनयुत, फैले हुए फना वाला, जीभ लपलपाता प्रकुपित हो, भीषण बादल सा काला।
नागराज वह क्षुद्र-कीट सा, लगता है जग में उनको, नाम आपका सिद्ध-मंत्र-सम, विष-नाशक मिलता जिनको।