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नमिऊण-स्तोत्रम्
- (मूल)
सडिय-कर-चरण- नह-मुह-निबुड्ड-नासा विवन्न-लायन्ना । कुट्ठ- महारोगानल-फुलिंग-निद्दड्डू- सव्वंगा ॥12 ॥ ते तुह चलणाराहण-सलिलंजलि-सेय-वड्डियच्छाया । वण-दण-दड्ढा गिरि-पायव व्व पत्ता पुणो लच्छिं ॥3 ॥
(सडिय-कर-चरण नह-मुह- निबुडु नासा) जिनके हाथ, पैर, नख और मुख सड़ गये तथा नासिका धँस गई, (विवन्न लायन्ना) जिनका लावण्य नष्ट हो चुका एवं (कुट्ठ महारोगानल-फुलिंग - निद्दड्ढ सव्वंगा ) कुष्ठ महारोगरूपी अग्नि की चिनगारियों से जिनका सर्वांग दग्ध हो गया, (ते) वे रुग्ण मानव (तुह) आपके (चलणाराहण| सलिलंजलि सेय- वड्ढियच्छाया) चरणों की आराधना-संबन्धी जल के अंजलिमात्र सिंचन से वृद्धिंगत कांति वाले हो (वण-दव-दड्ढा) वन की अग्नि से दग्ध (गिरिपायव व्व) पर्वतीय वृक्षों की भाँति (पुणो ) पुनः (लच्छिं पत्ता) शोभा को प्राप्त हो
गये !
(पद्यानुवाद)
धँसी नासिका और सड़ गये, हाथ-पैर, नख-मुख सारे, कुष्ठ-अग्नि की चिनगारी से, बिगड़े जिनके तन प्यारे । तुम चरणामृत के सिंचन से, वे नर सुन्दर बन जाते, दुग्ध-वृक्ष ज्यों हरे-भरे हो, वर्षा में शोभा पाते।
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नमिऊण-स्तोत्रम्
(मूल)
दुव्वाय-खुभिय जल-निहि उब्भड - कल्लोल-भीसणारावे । संभंत-भय-विसंठुल-निज्जामय-मुक्क-वावारे ॥14 ॥ अविदलिअ - जाण-वत्ता खणेण पावंति इच्छिअं कूलं । पास- जिण-चलण-जुअलं निच्चं चिअ जे नमंति नरा ॥5॥
(जे नरा) जो मनुष्य (निच्चं चिअ ) नित्य ही ( पास जिण चलण-जुअलं) पार्श्वजिन के चरण-युगल को (नमंति) नमस्कार करते हैं, वे (दुव्वाय-खुभिय) दुष्ट- पवन द्वारा क्षुभित, ( उब्भड कल्लोल-भीसणारावे) उत्कृष्ट तरङ्गों के कारण भीषण ध्वनियुक्त तथा ( संभंत-भय-विसंठुल- निजामय मुक्त वावारे) हड़बड़ाये एवं भय से विक्षुब्ध नाविक ने जहाँ पर अपना कार्य छोड़ दिया है, ऐसे (जलनिहि ) समुद्र में, (अविदलिजाणवत्ता) नहीं फटे हैं जल-यान जिनके ऐसे होकर (खणेण) क्षण भर में ( इच्छिअं कूलं) इष्ट-तट को (पावंति) प्राप्त हो जाते हैं।
पद्यानुवाद )
तूफ़ानी खलबली जहाँ पर, लहरों की ध्वनि भयकारी,
डर कर भाग्य- भरोसे छोड़ी नाविक ने नौका भारी । ऐसे सागर में पारस - प्रभु-चरण-स्मरण जो करते हैं, वांछित तट पर शीघ्र पहुँचकर, वे निज-संकट हरते हैं।