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मुक्ति-लक्ष्मी उस मानतुंग भक्त
का वरण करती है, जो
आचार्य मानतुङ्ग-स्वामि विरचितं
स्तोत्र-स्रजं तव जिनेन्द्र ! गुणैर्निबद्धां, भक्त्या मया विविध-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम् ।
धत्ते जनो य इह कण्ठ-गतामजस्रं, तं मान-तुङ्गमवशा समुपैति लक्ष्मीः ।। 48॥
नमिऊण स्तोत्रं
अपरनामा
भयहर संथवो
अन्वयार्थ (जिनेन्द्र) हे जिनेन्द्र। (इह) इस विश्व में, (य:जन:) जो मनुष्य (मया) मेरे द्वारा (तव गुणैः) आपके गुणों से (भक्त्या) भक्ति-पूर्वक (निबद्धां) गूंथी गई और (विविध-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम्) विविध अक्षररूपी रंग-बिरंग पुष्पों वाली (स्तोत्र-स्रज) स्तोत्ररूपी माला को (अजस्रं) हमेशा (कण्ठ-गतां धत्ते) कण्ठ में पहने रहता है, (तं मान-तुर्क) उस सम्मान से ऊँचे उठे हुए मनुष्य को (अवशा लक्ष्मीः) स्वाधीन लक्ष्मी (समुपैति) प्राप्त होती है।
पद्यानुवाद सूत्र बना गुण-वृन्द आपका, अक्षर रंग-बिरंगे फूल, स्तुति-माला तैयार हुई यह भक्ति आपकी जिसका मूल। | मानतुंग जो मनुज इसे नित कंठ धरे उसको हे देव! वरे नियम से जग में अतुलित मुक्तिरूप लक्ष्मी स्वयमेव।
अन्तर्ध्वनि हे जिनेन्द्र | मैंने भक्तिपूर्वक आपके गुणरूपी धागे में अनेक अक्षररूपी रंग-बिरंगे पुष्प पिरोकर यह स्तोत्ररूपी माला गूंथी है। जैसे पुष्पमाला से सम्मानित पुरुष शोभारूपी लक्ष्मी द्वारा वरा जाता है, अर्थात् शोभित होता है, वैसे ही इस स्तोत्ररूपी माला को कण्ठहार बनाने वाला मानतुंग (गौरव से उन्नत भक्त) अर्थात् जहाँ कहीं भी अपना माथा न टेकने वाला आपका प्रतिष्ठित सेवक, मुक्तिरूपी लक्ष्मी द्वारा वरा जाता है, अर्थात् संसार से मुक्त होता है। भक्ति मुक्तिदात्री है, इसलिये भक्त लौकिक/पारलौकिक प्रतिष्ठा के साथ अन्तत: पूर्ण आत्मविकास को प्राप्त होकर सिद्ध होता है।
अन्वयार्थ एवं पद्यानुवाद
पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी मुनिराज
के परम शिष्य क्षु. श्री ध्यानसागरजी महाराज
1. रुचिर-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम्