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आपका सतत नामस्मरण
बन्धन - मुक्ति का अमोघ मन्त्र है ।
आपाद- कण्ठमुरु-शृङ्खल-वेष्टिताङ्गा, गाढं बृहन्निगड-कोटि-निघृष्ट- जङ्घाः । त्वन्नाम - मन्त्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः, सद्यः स्वयं विगत-बन्ध-भया भवन्ति ॥ 46 ॥ अन्वयार्थ
(आ-पाद-कण्ठं) पैरों से कण्ठ- पर्यन्त (उरु-शृङ्खल-वेष्टिताङ्गा ) मोटी श्रृंखला / सांकलों से जिनका शरीर जकड़ा हुआ है और (गाढ़) दृढ़तापूर्वक (बृहन्निगडकोटि-निघुष्ट जङ्घाः) कसी हुई महाबेड़ियों के किनारों से घिसकर जिनकी पिण्डलियाँ छिल गई हैं, ऐसे (मनुजाः) मनुष्य (अनिशं) निरन्तर (त्वन्नाम मन्त्रं स्मरन्तः) आपके नामरूपी मन्त्र का स्मरण करते हुए (सद्यः) शीघ्र ही (स्वयं) अपने आप (विगत-बन्ध-भया) बन्धन के भय से रहित (भवन्ति) हो जाते हैं।
पद्यानुवाद
जकड़े हैं पूरे के पूरे, भारी साँकल से जो लोग, बेड़ी से छिल गई पिण्डलियाँ, भीषण कष्ट रहे जो भोग । सतत आपके नाम-मन्त्र का, सुमिरन करके वे तत्काल, स्वयं छूट जाते बन्धन से ना हो पाता बाँका बाल ॥
अन्तर्ध्वनि
जो पैरों से गले तक भारी जंजीरों से वेष्टित हैं और जिनकी पिंडलियाँ कसी हुई विशाल बेड़ियों के किनारों से रगड़ खा कर अत्यधिक छिल गई हैं, वे भी आपके नाम-मंत्र का सतत स्मरण करते हुए शीघ्र ही बन्धन मुक्त हो जाते हैं। इसी प्रकार भक्त की असंख्यात् कर्मरूपी बेड़ियाँ आपके नामरूपी मन्त्र की आराधना द्वारा निर्जीर्ण हो जाती हैं।
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इस स्तोत्र का पठन,
भय को भी भयभीत करने वाला है !
मत्त - द्विपेन्द्र - मृग-राज-दवानलाहिसंग्राम-वारिधि - महोदर-बन्धनोत्थम् । तस्याशु' नाशमुपयाति भयं भियेव, यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ॥ 47 ॥
अन्वयार्थ
( यः मतिमान) जो विवेकी मनुष्य (तावकं इमं स्तवं ) आपके इस स्त्रोत को (अधीते) पढ़ता है, (तस्य) उसका (मत्त-द्विपेन्द्र मृग-राज- दवानलाहि संग्रामवारिधि-महोदर- बन्धनोत्थं भयं) पागल हाथी, सिंह, दवानल, सर्प, युद्ध, समुद्र, जलोदर-व्याधि और बन्धन से उत्पन्न हुआ भय (आशु) शीघ्र ही (भिया इव) भय से ही मानों (नाशं उपयाति) विनाश को प्राप्त हो जाता है।
पद्यानुवाद पागल हाथी, सिंह, दवानल, नाग, युद्ध, सागर विकराल, रोग जलोदर या बन्धन से प्रकट हुआ भय भी तत्काल । स्वयं भाग जाता भय से उस भक्त-पुरुष का जो मतिमान्, करता है इस स्तोत्र - पाठ से, हे प्रभुवर ! तव शुचि-गुण-गान ॥
अन्तर्ध्वनि
जो बुद्धिमान मनुष्य आपके इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसका भय तत्काल भयभीत होकर स्वयं समाप्त हो जाता है, चाहे वह भय पागल हाथी, सिंह, वनाग्रि, सर्प, युद्ध, समुद्र, जलोदर - व्याधि या बन्धन के कारण भी क्यों न उत्पन्न हुआ हो।
1. तस्य प्रणाशमुपयाति 2. सस्तेऽनिशं
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