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यह जगत, माता मरुदेवी को कैसे भुला सकता है ?
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रानान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता । सर्वा दिशो दधति भानि सहस्त्र - रश्मिं, प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशु - जालम् ॥ 22 ॥
अन्वयार्थ
(स्त्रीणां शतानि) मातृजनों के शतक (शतशः) सैकड़ों बार (पुत्रान्) पुत्रों को ( जनयन्ति ) उत्पन्न करते हैं, पर (त्वदुपमं सुतं) आप-जैसे पुत्र को (प्रसूता जननी) जन्म देनेवाली माता (अन्या न ) अन्य नहीं, किन्तु एक मरुदेवी ही हुई। (सर्वाः दिशः) सभी दिशाएँ (भानि) नक्षत्रों को (दधति ) धारण करती हैं, पर (स्फुरदंशु-जालं) जिसमें से किरणों का समूह प्रस्फुटित हो रहा है, ऐसे (सहस्ररश्मि) सूर्य को (प्राची दिक् एव) पूर्व दिशा ही (जनयति) जन्म देती है।
पद्यानुवाद
जनती हैं शत-शत माताएँ शत-शत बार पुत्र गुणवान् पर तुम जैसे सुत की माता हुई न जग में अन्य महान्।
सर्व दिशाएँ धरें सर्वदा ग्रह-तारा-नक्षत्र अनेक, पर प्रकाश के पुंज सूर्य को पूर्व दिशा ही जनती एक ॥
अन्तर्ध्वनि
हे वृषभ तीर्थंकर! आप जैसे अनुपम पुत्र की माता सारे संसार में एक ही हुई है- माता मरुदेवी। आपकी जननी का शरीर रजोधर्म तथा मल-मूत्र से रहित था। आपके गर्भस्थ रहते हुए भी वे शारीरिक परिवर्तनों से रहित थीं तथा गर्भ-शोधनादि सेवाएँ देवियाँ स्वयं करती थीं। वेद-पुराणों ने आपको आदि ब्रह्मा माना तथा आप ही धर्म-कर्म के आद्य प्रवर्तक हुए। यह ठीक है कि प्रकाशमान नक्षत्रों जैसे धुरन्धर पुत्रों को भी कई माताओं ने उत्पन्न किया, लेकिन सूर्य-सम तेजस्वी आपको जन्म देनेवाली माता मरुदेवीरूपी पूर्वदिशा के अतिरिक्त कौन हो सकती थी?
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आपकी उपलब्धि से मोक्षमार्ग मिला।
त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस'मादित्य - वर्णममलं तमसः पुरस्तात् । त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्युं,
नान्यः शिवः शिव-पदस्य मुनीन्द्र ! पन्थाः ॥ 23 ॥
अन्वयार्थ
(मुनयः) मुनिजन (त्वां) आपको (परमं पुमांसं ) परम पुरुष एवं (तमसः पुरस्तात्) अन्धकार के सन्मुख (अमलं) उज्ज्वल (आदित्य-वर्णं) सूर्यरूप (आमनन्ति) मानते हैं। वे (त्वां एव) आप ही को (सम्यक्) अच्छी तरह (उपलभ्य) उपलब्ध करके (मृत्यु) मृत्यु को (जयन्ति) जीतते हैं। (मुनीन्द्र) हे मुनीन्द्र (शिव-पदस्य) मोक्ष का (अन्यः शिवः) दूसरा कल्याणकारी (पन्थाः न) मार्ग नहीं है।
पद्यानुवाद
सभी मुनीश्वर यही मानते, परम-पुरुष हैं आप महान् और तिमिर के सन्मुख स्वामी ! हैं उज्ज्वल आदित्य-समान । एक आपको सम्यक् पाकर मृत्युंजय बनते वे संत, नहीं दूसरा है कोई भी मोक्षपुरी का मंगल पंथ ॥
अन्तर्ध्वनि
हे मुनीन्द्र ज्ञानी ध्यानी मुनिजन आपको ही परम पुरुष / परमात्मा तथा अन्तरंग-बहिरंग तिमिर को दूर करनेवाला उज्ज्वल सूर्य मानते हैं। जैसे द्रव्य, गुण एवं पर्यायरूप से आपको समझनेवाला जीव, आत्मज्ञान को प्राप्त करता है, वैसे ही दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र में आपको अंगीकार करनेवाले मुनिराज मोक्ष को प्राप्त करते हैं, अर्थात् मृत्युंजय बनते हैं। मुझे तो इसके अतिरिक्त मुक्ति का कोई अन्य मंगल-पथ नहीं दीखता। आपको हृदय में धारण करनेवाला मनुष्य मृत्यु के भय को तत्काल जीत लेता है।
1. पवित्र 2 परस्तात्