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आपका ज्ञान निरपेक्ष है, जबकि शेष प्रभुओं का सापेक्ष।
आपके दर्शन से केवल नेत्र ही नहीं,
हृदय भी तृप्त हो जाता है।
ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कतावकाशं,
नैवं तथा हरि-हरादिषु नायकेषु। तेजः स्फुरन्मणिषु' याति यथा महत्त्वं, नैवं तु काच-शकले किरणाकुलेऽपि॥20॥
मन्ये वरं हरि-हरादय एव दृष्टा,
दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति। किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः कश्चिन्मनो हरति नाथ! भवान्तरेऽपि।। 21॥
अन्वयार्थ (यथा) जिस प्रकार (कृतावकाशं ज्ञानं) सर्वत्र अवकाश को प्राप्त ज्ञान (त्वयि) आपके भीतर (विभाति) सुशोभित होता है, (तथा एवं) उस प्रकार (हरिहरादिषु) हरि-हर आदि (नायकेषु) गणमान्यों में (न) नहीं होता। (यथा)जिस प्रकार (स्फुरन्मणिषु) झिलमिलाती मणियों में (तेज:) प्रकाश (महत्त्वं याति)महत्त्व को प्राप्त होता है, (एवं तु) वैसा तो (किरणाकुले अपि काचशकले) किरणों से भरपूर भी काँच-खंड में (न) नहीं होता।
अन्वयार्थ (मन्ये) मैं समझता हूँ कि (दृष्टाः हरि-हरादयः एव) देखे गये हरि-हर आदि ही (वरं) अधिक अच्छे हैं (येषु दृष्टेषु) जिनके देखे जाने पर (हृदय) हृदय(त्वयि) आपमें (तोषं एति) सन्तोष को प्राप्त होता है। (नाथ) हे नाथ! (वीक्षितेन भवता) दृष्टिगोचर हुए आपसे (किं) क्या लाभ है, (येन) जिससे (भवान्तरे अपि) पर -जन्म में भी (भुवि) धरती पर (कश्चित् अन्यः) कोई दूसरा (मनः) मन को (न हरति) नहीं हरता?
पद्यानुवाद ज्यों तुममें प्रभु! शोभा पाता जगत-प्रकाशक केवलज्ञान, त्यों हरि-हर-आदिक प्रभुओं में, होता ज्ञान न आप समान। ज्यों झिलमिल मणियों में पाता तेज स्वयं ही सहज निखार, काँच-खंड में आ न सके वह हो रवि-किरणों का संचार॥
पद्यानुवाद हरि-हरादि को ही मैं सचमुच,उत्तम समझ रहा जिनराज!
जिन्हें देखकर हृदय आपमें आनन्दित होता है आज। नाथ ! आपके दर्शन से क्या? जिसको पा लेने के बाद, अगले भव में भी ना कोई मन भाता ना आता याद॥
अन्तर्ध्वनि प्रत्येक अवतार में नवीनता धारण करनेवाले हरि-हरादि अधिक उत्तम हैं जिनके दर्शनोपरांत दर्शन की कड़ी बनी रहती है, ऐसा मैं समझता हूँ, लेकिन आपके दर्शन से हृदय ऐसा मुग्ध हो जाता है कि आगामी जन्म में भी बस आपकी ही लौ लगी रहती है। जिनदर्शन से निजदर्शन की यात्रा स्वतः सम्पन्न होती है और संसार-भ्रमण को विराम मिल जाता है। चित्त किसी की ओर आकृष्ट नहीं होता। तथा आपका भक्त सबके दर्शन से विमुख हो जाता है, आपमें ही लीन होकर अपने आप में विलीन हो जाता है।
अन्तर्ध्वनि हे वीतराग-सर्वज्ञ-जिनेन्द्र ! आपका सर्व-व्यापी ज्ञान झिलमिलाती मणियों के तेजसम सहज है, जिसमें स्वयमेव-इच्छा और प्रयत्न के बिना ही सभी पदार्थ अपनी त्रिकालवर्ती सर्व अवस्थाओं के साथ युगपत् झलकते हैं। अन्तिम भव में, जब वीतरागता अपनी पराकाष्ठा का स्पर्श करती है, केवलज्ञान होता है। इसी कारण आगामी अवतार धारण करनेवाले हरि-हर आदि प्रभुओं में कैवल्य का अभाव है। केवलियों के अतिरिक्त सभी ज्ञानियों का ज्ञान सापेक्ष होने के कारण सूर्य-किरणों से प्रकाशित काँचखण्ड की छटा को धारण करता है। 1. तेजो महामणिषु 2 काचोद्भवेषु न तथैव विकासकत्वम्॥