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________________ आपके रूप-लावण्य का रहस्य, रहस्य नहीं रहा। आपका मुख-सौन्दर्य चन्द्रमा को परास्त करनेवाला है। यैः शान्त- राग-रुचिभिः परमाणुभिस्त्वं, निर्मापितस्त्रि-भुवनैक-ललामभूत ! तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां, यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति॥12॥ वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरग-नेत्र-हारि, निःशेष-निर्जित-जगत्रितयोपमानम्। बिम्बं कलङ्कमलिनं क्व निशाकरस्य, यद्वासरे भवति पाण्डु-पलाश-कल्पम्॥13॥ अन्वयार्थ (त्रि-भुवनैक-ललामभूत) हे त्रिभुवन के अद्वितीय शिरोमणि । (यैः शान्त-रागरुचिभिः) जिन शान्त-रस की कान्ति वाले (परमाणुभिः) परमाणुओं द्वारा (त्वं निर्मापितः) आप बनाये गये, (ते अणवः अपि) वे अणु भी (खलु) ठीक (तावन्तः एव) उतने ही थे, (यत्) क्योंकि (पृथिव्यां) धरती पर (ते समानं) आपके जैसा (अपरं रूपं हि) दूसरा रूप ही (न अस्ति) नहीं है। अन्वयार्थ (सुर-नरोरग-नेत्र-हारि) देव, मनुष्य एवं नागकुमारों के नेत्रों को प्रिय लगने वाला तथा (नि:शेष-निर्जित-जगत्रितयोपमानं) पूर्णत: जीत ली हैं तीनों जगत की सौन्दर्य उपमाएँ जिसने, ऐसा (ते) आपका (वक्त्रं क्व) मुख कहाँ? और (कलङ्कमलिन)कलंक के कारण मलिन (निशाकरस्य बिम्बं क्व) चन्द्रमा का बिम्ब कहाँ, (यत) जो (वासरे) दिन के समय (पाण्डु-पलाश-कल्प) लगभग ढाक के फीके पत्ते के समान (भवति) हो जाता है? पद्यानुवाद हे त्रि-भुवन के अतुल शिरोमणि ! अतुल शान्ति की कान्तिप्रधान, जिन अणुओं ने रचा आपको, सारे जग में शोभावान। वे अणु भी बस उतने ही थे, तनिक अधिक ना था परिमाण, क्योंकि धरा पर रूप दूसरा, है न कहीं भी आप समान॥ पद्यानुवाद |सुर-नर-नाग-कुमारों की भी आँखों को तव मुख से प्रीत, जिसने जग की सारी सुन्दर-सुन्दर उपमाएँ ली जीत। और कहाँ चन्दा बेचारा जो नित धारण करे कलंक? दिन में ढाक-पत्र सा निष्प्रभ, होकर लगता पूरा रंक॥ अन्तर्ध्वनि हे सौन्दर्य-सिन्धु । संसार में जिसकी कोई उपमा नहीं और जो देव, मनुष्य एवं नागकुमार सबकी आँखों को अत्यन्त प्रिय है, ऐसा तो है आपका सुन्दर मुख, और कलंक से मलिन बेचारा चन्द्र-बिम्ब कहाँ, जो दिन में निस्तेज होकर फीके ढाक-पत्र सा जान पड़ता है? अत: कलम के धनियों की परम्परा निभाने के लिये मैं आपके मुख को चन्द्रमा कैसे कह अन्तर्ध्वनि अहो विश्व के रूप-शिरोमणि । मैं आपके अनुपम सौन्दर्य का रहस्य जान चुका हूँ। शान्ति की कान्ति को प्रदान करने वाले सारे ही दुर्लभ परमाणुओं ने मिलकर आपका रूप बनाया और वे अणु भी उतने ही थे, क्योंकि यदि वे अधिक होते तो आप जैसा सुन्दर कहीं न कहीं कोई और तो दृष्टिगोचर अवश्य होता। हूँ?
SR No.009939
Book TitleMantung Bharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhyansagar
PublisherSunil Jain
Publication Year2005
Total Pages53
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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