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आपकी स्तुति तो शरणागत को आपके सदृश बनाने वाली है।
नात्यद्भुतं' भुवन भूषण ! भूत नाथ !! भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टवन्तः । तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा, भूत्याश्रितं य इह नाम - समं करोति ॥ 10 ॥
अन्वयार्थ
(भुवन भूषण भूतनाथ ) हे जगत के भूषण हे प्राणियों के नाथ !! (भुवि ) धरती पर (भूतैः गुणैः) वास्तविक गुणों द्वारा (भवन्तं अभिष्टुवन्तः) आपकी स्तुति करने वाले (ननु) निश्चित रूप से (भवतः तुल्याः) आपके समान (भवन्ति) बन जाते हैं, (अत्यद्भुतं न यह अधिक आश्चर्यकारी नहीं (वा) तथा (इह) इस विषय में (तेन किं) उससे क्या लाभ, (यः) जो (भूत्या) सम्पत्ति के द्वारा (आश्रितं) शरणागत को (आत्मसमं) अपने जैसा (न करोति) नहीं बना लेता?
पद्यानुवाद
तीनों भुवनों के हे भूषण ! और सभी जीवों के नाथ !!
अधिक अचरज इसमें जो सत्य-गुणों का लेकर साथ । तव स्तुति गाता जिनपद पाता इसी धरा पर अपने आप, जो न कर सके शरणागत को निज-समान उससे क्या लाभ ? ॥
अन्तर्ध्वनि
हे जगत- भूषण! निष्काम भक्ति-पूर्वक यथार्थ गुणों द्वारा की गई आपकी स्तुति भक्त को भगवान बना देती है, यह विशेष विस्मयकारी नहीं, क्योंकि स्तुति का प्रभाव ही ऐसा है। आप वीतराग हैं, अतः किसी का भला बुरा नहीं करते, तथापि आपके गुणों का स्मरण माङ्गलिक है। फिर, हे नाथ। उस स्वामी के पास जाने से क्या प्रयोजन, जो सेवक को सेवक ही बनाए रखता है? अरहंत-सरणं पव्वज्जामि ।
1. अत्यद्भुतं
आपकी मुद्रा
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'नेत्रों के लिये परम आनन्दकारी है।
दृष्ट्वा भवन्तमनिमेष - विलोकनीयं, नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः । पीत्वा पयः शशि-कर- द्युति दुग्ध-सिन्धोः, क्षारं जलं जल-निधे रसितुं क इच्छेत् ॥ 11 ॥
अन्वयार्थ
(अनिमेष-विलोकनीयं) एक टक दर्शन के योग्य / अपलक दर्शनीय (भवन्तं दृष्टवा) आपको देखकर (जनस्य) मनुष्य की (चक्षुः) आँख (अन्यत्र) अन्य में (तोषं) सन्तोष को (न उपयाति) प्राप्त नहीं होती। (शशि-कर-द्युति) चन्द्रकिरणों जैसी कान्ति है जिसकी, ऐसे (दुग्ध-सिन्धोः पयः) क्षीरसागर के जल को (पीत्वा) पीकर (जल-निधेः क्षारं जलं) लवण समुद्र के खारे पानी का (रसितुं) स्वाद लेना (क: इच्छेत्) कौन चाहेगा?
पद्यानुवाद
अपलक दर्शन-योग्य आपके, दर्शन पा दर्शक के नैन, हो जाते सन्तुष्ट पूर्णतः, अन्य कहीं पाते ना चैन । चन्द्र-किरण सा धवल मनोहर, क्षीर-सिन्धु का कर जल पान, खारे सागर के पानी का स्वाद कौन चाहे मतिमान् ? ॥
अन्तर्ध्वनि
जिस प्रकार क्षीरसमुद्र का मधुर जल पीकर कोई मनुष्य लवण समुद्र के खारे जल का स्वाद नहीं लेना चाहता, उसी प्रकार आपके अद्भुत सौन्दर्य सम्पन्न रूप का दर्शन पाने के पश्चात् मनुष्य की आँखें ऐसी तृप्त होती हैं कि फिर अन्य किसी की झलक भी पाने का भाव नहीं होता! श्रेष्ठ निधि पाने के पश्चात् अन्य वस्तुएँ आकर्षक कैसे लग सकती हैं?