________________
[ ५३ ]
७-३१३. (क) एकमेव हि तत्स्वाद्य विपदामपदं पदम् । अपदान्येव भासते पदान्यन्यानि यत्पुरः || श्री अमृतचन्द्रसूरि ।
एक ज्ञानमात्र का ही स्वाद लेना चाहिये जो विपत्तियों का स्थान नहीं है, जिस पद के आगे अन्य पद पद हो जाते हैं । तुम "मैं ज्ञानमात्र हूँ" इसका निरंतर चिन्तवन करो |
..
ॐ ॐ
८-३१३, (ख) यद्यदा चरितं पूर्वं तत्तदज्ञान चेष्टितम् । उत्तरोत्तर विज्ञानाद्योगिनः प्रतिभासते ||
श्री गुणभद्रसूरि ।
प्रतिभास होता है
योगी को उत्तरोत्तरज्ञान से ऐसा
वह सब अज्ञान में
कि जो जो मैंने पहिले चेष्टा की वह चेष्टा हुई। तुम अपने मन वचन काय की सब चेष्टावों को "ये अज्ञान में हो रही है" ऐसा मानते रहो ।
ॐ फ ६- ३१३. ( ग ) जीविताशा धनाशा च येषां तेषां विधिर्विधिः 1:1 किं करोति विधिस्तेषां येषामाषा निराशता ॥ श्री गुणभद्रसूरि ।