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जिन्हें जीने की और धन की आशा लगी हो उनको कर्म कर्म है परन्तु जिनके आशा के न होने की हो मात्र आशा हो उनका कर्म क्या कर सकता है ।
तुम यही सोचो 'मुझे कुछ नहीं चाहिये मैं ही अपने . लिये सब कुछ हूं।"
१०-३१३. (घ) आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत्करोति किम् । परभावस्य कर्तायं मोहोऽयं व्यवहारिणम् ।।
श्री गुणभद्रसूरि । आत्मा ज्ञान है और वह स्वयं ज्ञान है ज्ञान से अतिरिक्त आत्मा करता ही क्या ? आत्मा पर के भाव का कर्ता है ऐसा कहना व्यवहारी जनों का मोह ही है यथार्थ बात नहीं।
तुम "जानने के सिवाय पर में कुछ भी नहीं कर रहे हो" ऐसा मानते रहो।
+ ॐ ॐ ११.३१३. (च) भुक्तोझिता मुहुर्मोहान्मया सर्वेऽपि पुद्गलाः । उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य मम विज्ञस्य का स्पृह ॥
श्री पूज्यपाद ।