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जगत् से विकल्प हटा कर सुखी होओ।
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१८- ५६६. दिखने में कान नाक आँख आदि आते आत्मा नहीं आता तब आत्मा का यश क्या ? सुनने व बोलने में नाम के ही शब्द ते आत्मा नहीं, तब आत्मा का यश ही क्या ? लिखने में नाम के अक्षर ही ते आत्मा नहीं तत्र अक्षरों से आत्मा का यश क्या ? आत्मन् ! किसे आत्मा मानकर परेशान हो रहे हो ? मन वचन काय के प्रयत्न को छोड़कर सहज स्वरूपी होओ।
ॐ
१६ - ५८५ कीर्ति से आत्मा को क्या मिलता ! कुछ नहीं, जिसकी कीर्ति होती है मान लो उसे एक ग्राम के लोक जान गये या एक जाति के लोक जान गये तो शेष ग्राम व जाति के लोकों ने तो समझा नहीं, मान लो सब मनुष्य जान गये तो पशु पक्षी देव आदि ने तो समझा ही नही, मान लो असंभव भी संभव हो जाय कि सब
जीव जान जाँय तथापि सब जीव मिलकर भी उसकी परिणति सुखमय नहीं कर सकते, स्वयं का विरक्ति भाव ही सुखी बनायेगा |
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