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[ २७ ] का मूल प्रायः ख्याति है। भेदविज्ञान से इस मूल के नाश करने पर शान्तिमार्ग मिलता है ।
१४-३४१ जिसे ख्याति की चाह है उसे आत्मज्ञान नहीं;
यदि आत्मज्ञान होता तब उसकी चाह ही नहीं करता।
१५-४३०, प्रसिद्धि से आत्मशुद्धि का सम्बन्ध नहीं है,
प्रसिद्धि अनाकुलता का मूल नहीं, आत्मशुद्धि अनाकुलता.का मूल है।
१६-४७५. चाहे विपुलधनी हो या विद्वत्सम्मत हो या . जगद्विख्यात हो किसी का भी यश या लोकप्रियत्व
स्थिर नहीं है।
५-४६६. जो प्रसिद्ध हैं व प्रसिद्धिकर्ता है उनकी यह स्थिति स्वप्नवत् है, उनको परिणति देख कर व सोचकर मोह व आश्चर्य उत्तम मत होने दो, द्रव्यदृष्टि द्वारा अनादिनिधन ज्ञायक आत्मा का स्वरूप समझ कर निज ही में संतुष्ट, रत होत्रो और परिणामात्मक इस