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[ २५ ] ६ - १८२, संसार में अपने को महान् सिद्ध कर देने की इच्छा या अपना नाम या अस्तित्व स्थापित कर देने को इच्छा यदि नष्ट हो जाय तो तब से व्रत प्रारम्भ करने का का हो सकता है, अपने भाव को खोजो, यि वह इच्छा है का डौंग है । यदि कल्याण चाहते हो तो पहले योग्य तर्कणावों से उस इच्छा की होली कर दो ।
फॐ फ्र
७ - १८३, संसारभाव दुर्लक्ष्य है यश की चाह न करने का उपदेश देकर भी यश की चाह की पुष्टि की जा सकती है । जो उपदेश का लक्ष्य पर को ही बनाते हैं वे मुग्ध हैं और जो स्वयं को बनाते वे सावधान हैं ।
ॐ फ्र
८ - १६३. यश सदा नहीं रहता' इसलिये यश अनित्य, जिनमें यश चाहा जाता वे भी तदवस्थ न रहने से अनित्य, जो यश चाहता वह भी तदवस्थ न रहने से अनित्य, परन्तु यह बड़ी मूर्खता व विडंबना है - जो नित्य अनित्य को अनित्यों में नित्य बनाना चाहता है । फॐ फ ६- १६४. यदि यश की चाह है तो ऐसा यश प्राप्त करो