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५ यश-अपयश
१-१६. ख्याति की चाह न रखने वाला ही सच्चा अध्यास्मयोगी और सुखी बन सकता है।
२-१०. ख्याति के त्याग के उपदेश में यदि ख्याति का
उद्देश्य रहा तब व्रती का वेश निरर्थक है।
३-२७. मनोहर ! जरा बताओ कि मृत्यु के बाद यहां की
नामवरी साथ जावेगी या भला बुरा संस्कार ? यदि दूसरा पक्ष तुम्हारी उत्तर है तब पहिले पक्ष से ममत्व छोड़ा या वहां रहा जहां के लोक तुम्हारे परिचित न हों।
४-४५. किसी की अपकीर्ति कर कीर्ति नहीं मिलती।
५-१६४. अपयश का कार्य न करते हुए भी अपयश होने
का भय यश की चाह के बिना नहीं हो सकता।