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५३ सहजपरिणति
१-३७४. जो तुमने पूर्व पुण्य उपार्जित किया उसके क्षणिक
उदय का फल वैभव या पूछताछ है, स्वाधीन चीज नहीं उसके निमित्त से जायमान सुख तृष्णा कर भरा है इसमें क्या मग्न होना अपने सहज सुख निधि का ध्यान कर रागद्वीप को हटाबो ताकि नवीन बन्धन न हो।
२-४७२. मनोहर कहकर संबोधना अब अटपटा सा लगता
जब मैं न मनोहर शब्द रूप हूं न मनोहर बुद्धि रूप हूँ तब परमार्थ समझाने के अवसर में उपचरित का सांस्कर्यहेतुक प्रयोग करना बेजोल बात है तू तो अपने को सहज स्वभावमय देख ।
३-३६७. व्यवहारी, वर्ष के प्रथम दिन को नूतन दिन कहते हैं, वस्तुतः तो वही नूतन दिन है जब पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का बोध हो और बाह्य परिणति मिटकर सहज