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[ २२४ ] का लेश बंध भी होजाय तो पापानुबंधी पुण्य होगा जिसके उदय में पापबुद्धि होकर पाप कमाकर नरकादि गति में जाना पड़ेगा और दुःख भोगना होगा।
५-१५०. जो अपने कार्य का फल कोर्ति, आदर, धन,
ज्ञान, सुख आदि की वृद्धि चाहेगा वह निराकुल और संतुष्ट नहीं हो सकेगा।
६-१५१. तपश्चरण करके भी मोक्ष की अभिलाषा करना,
आकुलता, तृष्णा व संसार बताया गया वहां अन्य अभिलाषायें तो घोर अनर्थ ही समझो ।
७-१६०. जगत् पुण्य का फल चाहता किन्तु पुण्य करना
नहीं चाहता और पाप का फल नहीं चाहता किन्तु पाप परिणाम चाहता व करता है।
८-१६३. इच्छा से पहिले संतोष नहीं अन्यथा इच्छा ही
क्यों होती, इच्छा के समय भी संतोप नहीं अन्यथा संतप्त क्यों होता, इच्छा के बाद भी संतोष नहीं अन्यथा चेष्टा कर व्याकुल न होता, अतः इच्छा के पूर्व, वर्तमान