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[ २२५ ] व भावी तीनों रूप दुःखवाई है-इच्छा को त्यागो।
॥ ॐ ॥ ६-१८०. भोगेच्छा रोग है और भोग दवा (जो दवा दे)
है; रोग पैदा कर दवा करने (दवाने) में रुचि करना विवेकी पुरुष का कर्तव्य नहीं। रोग पैदा हो न हो इससे बढ़कर स्वास्थ्य नहीं अतः तत्त्वज्ञान से इच्छा को दूर करो।
॥ ॐ 卐 । १०-१८३. संसारभाव दुर्लच्य है ! यश की चाह न करने
का उपदेश देकर भी यश के चाह की पुष्टि की जा सकती है जो उपदेश का लक्ष्य पर को ही बनाते वे मुग्ध हैं और जो स्वय को बनाते वे मावधान हैं।
११-२३०. यदि सर्वसंग से रहित होना है तो पर द्रव्य की
इच्छा छोड़ा इच्छा रहते हुए बाह्य द्रव्य के त्याग का मूल्य नहीं।
+ ॐ ॥ १२-२३१. इच्छा रहित पुरुष ही अडोल रहता-आत्मध्यान में स्थिर रहता और शीघ्र ही सकल क्रिया से रहित शुद्ध आत्मा हो जाता है।