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[ २१६ ] बाह्य हैं उनके कुछ भी परिणमन से न मेरा सुधार है, न मेरा बिगाड़ है, मैं तो केवल विकल्पों से हीं बरबाद हो रहा हूँ ।" हे सुखैपी ! अज्ञानपटल को दूर कर, तो वाह्य ही है, वे कभी सहयोगी तो हो नहीं सकते तच विकल्प करना व्यर्थ भार होना नहीं है क्या ?
वाह्य
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४- ५६४. सर्व वाह्य अर्थ कुछ भी दशा को प्राप्त हो, होश्रोउसकी हानी से, हमें तो उसके विकल्प से रहित ही रहना है, विकल्प ही मेरे शत्रु हैं । हे शुद्धात्मन् ! विकल्प (इष्टानिष्टादि क्षोभ ) का क्षण भर भी उदय मत होत्रो ।
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५-५६७. तुम इतनी तपस्या करते हो, घर छोड़ा, विषय छोड़े, दुबारा भोजन छोड़ा, शीत उष्ण मिटाने का विशेष साधन नहीं रखा, सब कुछ किया, किस लिये ? आत्म
स्वरूप की सिद्धि के लिये, तत्र क्या हुआ विचारो - सर्व विकल्प छोड़ा - शान्त होकर बैठ जाओ ।
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६-६००, अनन्त मुनिराज ऐसे मोक्ष पधारे जो उन्हें उस जमाने में भी कोई न जानता था पर हुए वे भी अनंत
सुखी, वह अनंत सुख हीं तुम्हारा लक्ष्य होना चाहिये