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४७ विकल्प
१-५४४. तुम्हारा समय कल्पना में ही व्यती होता है इसे
बन्द करो, देखो जब तक इस पर विजय नहीं पाते तब तक रागपक्षीय कल्पना न करके ऐसी कल्पनायें किया करो-यह विकल्प मेरे सहज महत्त्व का विध्वंसक है, ये पदार्थ भिन्न अहित और क्षणिक हैं हमारे सुख में रंच भी मदद करने में समर्थ नहीं हैं।
२-५५३. आत्मन् ! तुम जिस भव में पहुंचे उस ही भव में निकटस्थ पर पदार्थों के निमित्त विकल्प ही बढाते रहे वही प्रक्रिया यदि मनुष्य भव में करो-तब बतायो-मनुप्य बनने से क्या लाभ है ? पशुगति से क्या विशेषता हुई ? अरे मूड़ ! तुझे जानने और मानने वाला यहां है कौन ? किस चक्कर में पड़ा ? उठ ! अपने ज्ञायक भोव से नाता लगा।
॥ ॐ ॥ ३-५५७. मुझ ज्ञानमात्र आत्मा के अतिरिक्त सर्व पदार्थ