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६ - ६१४. जो जमघट दिखता है न वह तत्त्व है और न उसका देखने वाला वह तत्त्व है, दोनो ही संयोगज पर्याय हैं वास्तविक याने शुद्ध पदार्थ नहीं हैं । फ ॐ फ
१० - ६३४. मुझे (इस पर्याय को) कोई न जाने कोई न माने किसी को भी परिचय न हो क्योंकि होती भी क्या भलाई है ... ... मेरी... उन बातों से...: जगत धोखा का नाटक है ।
फॐ फ
११- ६८६. संसार में जो कुछ दीखता है वास्तविकता से देखो तो सार का नाम भी नहीं ।
ॐ
१२- ७२४. संसार में सभी चौकीदार या मुनीम मालूम हो रहे हैं, यहां तो कोई मालिक ही नहीं मालूम पड़ता । ठीक है, यदि सत्य स्वरूप में जगत हो तो मालिक की भी बात चलती या होती ।
फ्र ॐ 5 १३- ४५७. मैं "मनोहर" नहीं हूं, इन शब्दों से जो वाच्य ख्यात हैं वह माया है, अहित है, इसमें बुद्धि रखने से ही दुःख होता है, मलीनता का प्रादुर्भाव यहीं से है ।
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