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[ २१५ ] संसार में तुझे क्या कुटेव लग गई कुटेव को हटा और ' वस्तुस्वरूप को समझ।
६-५५६. श्रात्मन् ! तू बाहर कुछ मत देख और यदि दिखें
ही तो मायारूप मानता जा, जगत में कोई वस्तु रम्य नहीं, वहां कहीं भी हित का विश्वास न कर, न उनसे नाता जोड़।
॥ ॐ ॥ ७-५६५. कौन किसे जानता ? कौन किसे मानता ? सब
मायावियों का खेल है।
८-६१२. पर पदार्थ ज्ञान में आते हैं याने ज्ञान के विषय हैं, तुम उनमें रुचि मत करो क्योंकि ये हित कुछ भी नहीं कर सकते, ये पर ही तो हैं, संसार इन्द्रजाल है, दिखने बोलने लिखने वाले ये सब क्षणिक हैं, आत्मा का स्वरूप अमूर्त है. ज्ञानमय है, इसे कोई कुछ कह भी नहीं सकता, यह तो अपनी योग्यता से अपनी परिणतियां कर अपना फल पाता रहता है । दूसरों से इसका कुछ न बिगाड़ होता न सुधार होता ।