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अतः क्षणिक और मायारूप है पर इन्हीं मायाओं का भूत कुछ है और वह भेद रूप से कई भागों में विभक्त है किन्तु सत्त्वसामान्य की दृष्टि में सर्व सत् स्वरूप है उसे न पहिचानने वाले पर्यायबुद्धि होने से मोही होते हैं, यह ही दुःख का मूल है, सर्व जगत से न्यारा रहने वाला (शुद्ध उपयोगी ही सच्चा सुखी है । फ ॐ फ
४- ५३४. जीवन का कुछ विश्वाम नहीं किसी भी क्षण मृत्यु सकती, फिर क्या होगा, जो सबका हुआ सो सोच लो, जिस शरीर को रुचि से देखते हो, पोषते हो, जिस के कारण अपने को भूलते हो, लेकेिषणा करते हो वह शरीर आग से जल कर खाक हो जायगा ।
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५- ५५५, काम करते हो – अच्छे कहलाने के लिये, पर यह तो वतावा-किन में अच्छे कहलाने के लिये ? अपने ही समान जन्म मरण क्लेश व्याधि कषाय आदि के दुख भोगने वाले अपर आत्मावों में ? अरे... अपर आत्माai से अधिष्ठित शरीरों में ? सो शरीर तो जल कर सब खाक हो जायेंगे और आत्मायें जिस भव में जावेंगे विकल्प द्वारा वहां के हो जायंगे इस अहित और असार
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