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न्यमात्र विशेष्य को तो लोग भूल गये और चिन्तामणि विशेषण को आदेयता की दृष्टि से देखते रहे, अतः और किसी में चिन्तामणि की कल्पना होने लगी, कोई पृथक् चिन्तामणि है ही नहीं, अतः चैतन्यमात्र ही चिन्तामणि है उसी को हस्तगत करो फिर सर्व अर्थ की सिद्धि है। ॐ ॐ
८- ६०६. आत्मा की रक्षा और भलाई इसी में है जो कुमाव पैदा न होने दे, वे कुभाव न प्रतिसंक्षेप से न अतिविस्तार से विभक्त किये जायें तो १० भागों में विभक्त होते हैंजिन्हें प्रतीकार सहित लिखते है
१- मन का विषय - अशरण संसार में मम्रता न करना और इस असार संसार में नामवरी न चाहना | २- स्पर्शन का विषय – काम का कुभाव न करना और शीतादि से अपना बिगाड़ न मानना ।
३ - रसना का विषय -- भक्ष्यपदार्थों में भी आसक्ति न करना तथा अहित बात न बोलना ।
४ - प्राण का विषय - सुगंधित पदार्थ का ध्यान भी न
करना
५-चक्षु का विषय रागवद्ध के रम्य पदार्थ को देखने