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[ १६४ ] लेश नहीं, हित का बुद्धिगत उपाय एकान्तवासी होकर . स्वाध्याय, ध्यान व तप करना है; कमजोरी तो बनाने से बनती है व हटाने से हटती भी है।
6-५०६, हिंसा झूठ चोरी व्यभिचार तृष्णा ये अनर्थ के
मूल हैं जो इनसे बचा वह ही श्रेष्ठ है। लौकिक वैभव तो न किसी का हुआ और न होगा आत्महित ही सर्वोपरि है।
卐 ॐ ॥ १०-५१०. वाह्य तो वाह्य ही है, कभी भी निजानहीं हो
सकता; अपने उपयोग में उन्हें स्थान मत दो; अरे दिखनेवाले भी सभी तुम्हारे जैसे मायामय क्षणिक हैं, दो दिन को थपड़ी बजा कर हा हा हू हू करके जैसे तुम किनारा कर जावोगे ये किनारा कर जावेंगे; कोई किसी का सहाय नहीं है, यह तो वैज्ञानिक बात है-हमारे परिणाम से सुख-दुख एवं संसार-मोक्ष है।
११-५३०. दृश्य पदार्थ तो जड़ हैं वे तुझे आपत्ति कर
सकते हैं ?...और...अन्य आत्मा अन्य ही हैं वे तो मात्र स्वयं में ही परिणमन करते हैं अतः वे भी तुझे क्या