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[ १६३ ] ४-४१६. तुम जिस अर्थ की हानि व शंका में भीत एवं
दुखी रहते हो उसकी हानि होने पर भी शोक रहित रहने रूप धीरता जब तक न पालोगे सुखी हो ही नहीं सकते
और उसका उपाय एक यह भी है कि मान हो लोहानि हो चुकी-फिर जिस उपाय से सुखी हो सकते हैं उस उपाय को विकल्प ही समझा देगे।
ॐ ॐ ॐ ५-४५६. किसी भी सामाजिक कार्य का आयोजन अध्या
स्मयोगी को विडंबना है, स्वयं इच्छा करके न करे; यदि कोई करता हो और उसमें हित देखे तो समर्थन करके अपनी परिणति में चला जावे ।
६-४६८. ये वैभव भोगने में तो पा नहीं सकते केवल बुद्धि
गत होकर पाप में निमित्त बनते हैं, भोगने में तो आते नहीं फिर वुद्धिगत ही क्यों करते ? हटो और दूर रहो।
७-४७६, लौकिक कार्यों में नरभव गमा दना महती मूर्खता
卐 ॐ म ८-४८२. दृश्यमान पदार्थ सब अस्थिर हैं, यहां हित का