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१-३३४. जब भी तुम्हें क्लेश हो तब अपने अपराध पर
दृष्टि डालो और सोचो-किस रोग के कारण यह दुःख हो रहा है ? क्योंकि राग के बिना संताप नहीं होता।
२-३३५. राग का विषय केवल बाह्य वस्तु नहीं किन्तु राग,
राग में क्रोध मान माया लोभ में इच्छा में द्वष विरोध में मिथ्यात्व आदि परिणामों में भी होता अन्यथा वह
आत्मा इन परिणामों से विरक्त या असंतुष्ट होता और निराकुल स्वाधीन शान्त हो जाता।
३-३६४. तुम किसी के नहीं और न कोई तुम्हारा है इसे
बार बार विचारो और वाह्य से राग छोड़ो।
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४-३७१. जब तक राग रहेगा चाहे वह धार्मिक संस्था का
भी क्यों न हो, निर्भय और निःशल्य नहीं रह सकोगे।