________________
[. १७८ ] मायाप्रपञ्च नहीं रहता और उनकी प्रवृत्ति सर्व के हितरूप होती है।
१-६०४. धर्मिसेवा भी एक स्वसेवा है, क्यों ?...धर्मी
महात्मा के प्रशस संवेग आदि गुणों के आश्रय से भावित स्वगुण के अनुराग से होने वाली चेष्टा अशुभोपयोग को तिलाञ्जलि देती है जो कि दुःखमय ही है और वीतराग परिणति को पुष्पाञ्जलि देती है जो कि सहजानदमय है।
१०-६०५. आत्मन् ! देख...भले में सभी सेवक से होजाते हैं
परन्तु विपदा उपसर्ग में धर्मिवत्सलों की परीक्षा होती है । एक बार यदि भली स्थिति में धर्मात्मा को सेवा न कर सको न सही परन्तु धर्मों पुरुष पर कोई भी विपदा आने पर तुम वहां उसके ही से बन जावो; हित प्रिय वचनों से वैयावृत्य से धर्मी के उपसर्ग को दूर करने में ही समय लगा दो; उस समय वही तेरा धर्म है। धर्म तो मानसिक व तत्त्वतः आत्मीय बात है धर्म तेरा सब जगह सुरक्षित रहेगा।
卐 ॐ 卐