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३७ धर्म
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१-३३२. ममेदं रूप संकल्प का मोह व हर्ष विषाद आदि
को क्षोभ कहते है, और मोहक्षोमरहित परिणाम को धर्म कहते हैं, इसका फल निराकुलता (आत्मशांति) है, सो यह फल धर्म के काल में हो तत्क्षण प्राप्त होता है अतः यह सिद्ध हुआ कि धर्म वही है जिसका फल नियम से तत्काल मिल ही जावे; वह धर्म नहीं जिसे आज करे और फल बाद में मिले।
ॐ ॐ ॥ २-३३३. पुण्योदयजन्यसम्पत्नि धर्म का फल नहीं, रागादि के कारण जो शुभोपयोग होता है जो कि धर्म की कमी है उसका फल है।
ॐ ॐ ॐ ३-६०७, मानवधर्म प्रवृत्तिपरक है अात्मधर्म निवृत्तिपरक है, अपने को मानव मानना आत्मस्वरूप को खोना है और अपने को ज्ञायक मानना आत्मस्वरूप की सिद्धि .