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३१ उपकार
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१-६७. हम दूसरे का उपकार करके भी अपनी ही वेदना मिटाते हैं व शान्ति स्थापित करते हैं, मेरे निमित्त से दूसरों का सुख या कल्याण हो जाय तो इसमें उन्हीं का पुण्योदय या भवितव्यता या विशुद्धि अन्तरङ्ग कोरण है। ॐ फ २- ७६१. अपकार अर्थात् बिगाड़ करने वाले को यदि बदला देना चाहते हो तो उपकार से दो, इसमें तुम्हारी विलक्षण विजय होगी । फ्र ॐ फ्र ३-५६५, एक तो समाधिमार्गगामी पुरुष से स्वतः उपकार होता रहता है... और दूसरा कोई उनके सदृश यशस्वी बनने की चाह वाला व प्रशंसा का लोभी या 'उपकार
इस युग में हम से ही हो रहा' इस भाव से उपकार की
धुन वाला अपनी करतूत करता है,... इन दोनों में महान्
अन्तर है ।
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