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[ १५७ ] . ८-८७४. आत्मन् ! अशुभोपयोग से तो हटो, अशुभोपयोग
तो किसी भी प्रकार किसी भी सुख का कारण नहीं, और . जब तक शुद्धोपयोगी न होओ तब तक शुभोपयोगी बनो, कुछ न कुछ (जाप, वंदना, सत्संग, स्वाध्याय, शास्त्रश्रवण, धर्म महोत्सव आदि) करते रहो, किन्तु लक्ष्य शुद्धोपयोग का ही रखो।
ॐ ॐ ॐ ६-८७५. शुद्धोपयोग के लक्ष्य से हटा हुआ आत्मा धर्ममार्ग पर नहीं, चाहे वह सदा व्यवहारधर्मरूप शुभ उपयोग में रहता हो।
१०-८७६. अशुभोपयोग तो विष ही है और शुद्धोपयोग
अमृत ही है परन्तु शुभोपयोग विष भी है और अमृत भी है अर्थात् नियत अमृत (शुद्धोपयोग) के स्थान को देखता हुआ शुभोपयोग अमृत भी है तथा नियत अमृत को न देखता हुआ शुभोपयोग भी विष है। रागद्वषरहित ज्ञान को स्थिति को भावनाकरो, सर्व सिद्धि होगी।
११-६१४. शुद्धोपयोग को भावना रूप शुभोपयोग में ध्यान तो खंडरूप व आत्मा का अशुद्ध (सापेक्ष) परिणमनरूप