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[ १५३ ] १०-५७२. घना तो आत्महित के लिये कुछ जरूरी है ही
नहीं।
११-५७३. वह ही भोजन, पानरस ग्रहण करो जितने से समिति पालन और स्वाध्याय आदि, संयम के साधन के योग्य शारीरिक शक्ति रहे ।
१२-५७४. लज्जा शीत आदि के निवारण के अर्थ ५ ही वस्त्र रखो-२ कौपीन, २ तौलिया या छोटे चद्दर, १ खेस या चादर तथा जीवरक्षादि के अर्थ दो छोटी साफी रखो। शरीर के रूक्ष होने पर जब फटना सा लगे या बाधा हो तब ही अल्प तेल मर्दन कराना, अनावश्यक प्रारम्भ परिग्रह से बिगाड़ ही है।
१३-५७५. वह ही वात विचार में लावो जो आत्महित के अर्थ आवश्यक हो, यदि इसके विपरीत वात विचार में आवे तो भेद विज्ञान भावना से उसे शीघ्र ही अस्त कर दो।
卐 ॐ ॥