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६ - ५४६ क्रोध के वेग में ऐसी भी बात कहने में आती है कि जो अपने अधिकार की बात तो है परन्तु उसका प्रयोग स्वयं को है अनिष्ट तथा जिस पर क्रोध किया उसे अनु चित इष्टसिद्धि हो जाती है, अतः कैसा भी क्रोध हो वचन वह बोलो जिसके बाद शल्य न हो ।
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७-५६६, जैसे धनवालों के लिये यह उपदेश होता है - कि आवश्यकता से अधिक संग्रह मत करो, जीवन के लिये जो आवश्यक है उतने से प्रयोजन रखो। इसी प्रकार तुम्हारा यह कर्तव्य होना चाहिये - पाँच इन्द्रिय और मन के व्यापार को उतना ही करो जो आत्महित के लिये अल्पपारम्पर्येण आवश्यक हो ।
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८- ५७०, वे हीं शब्द (अनुराग से) सुनो जो आपकी निर्मलता के अर्थ आवश्यक हों ।
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६ - ५७१ उसे ही देखो जिस के देखने से आपके दर्शन ज्ञान चारित्र में बाधा न आवे |
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