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[ १४७ ] ४-१४६. वियोग संयोग को फल है, अतः दुःख का मूल
संयोग ही है इस लिये संयोग में रंच रुचि न कर ।
५-६४७, जो संयोग में हर्ष मानते हैं वे वियोग में दुखी होते, अतः वियोग के दुःख को न चाहने वाले संयोग में सुख न माने ।
॥ ॐ ॐ ६-१४८. संयोग व वियोग की आकुलता से बचने के लिये
संयुक्त व वियुक्त द्रव्य की क्षणिकता, अशरणता व अन्यता 'का चिन्तवन करें।
ॐ ॐ ॐ ७-१५३. किसी भी प्राणी को देखकर तुम उसे अपरिचित ही समझो, पूर्व के परिचय को "स्वप्न में देखा था" ऐसा समझो।
८-१६५. द्वन्द्व, दुःख, संताप, विभाव, विपदा आदि सभी
अनिष्ट बातें संयोग में हैं । वियोग से अर्थात् केवल रह जाने से तो उन अनिष्टों का सर्वथा अभाव हो जाता, परन्तु मोही जीव संयोग को ही इष्ट मानता है।
॥ ॐ ॥