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फिर रहा है, ये ही दुख तो भव भव में अनादिकाल से भोगे, तू दुःख ही में चैन मान रहा है, अपने आत्मबल को संभाल, समस्त पर पदार्थों से एक दम रागछोड़ दे, तू अकेला ही था अकेला ही है अकेला ही रहेगा, बाह्य पदार्थ का सम्बन्ध तो लेशमात्रं लाभ नहीं पहुंचा सकता, बल्कि संयोग के कारण कषाय के आश्रय होने से ही हानि है ।
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. १३-७०७ सँसार में एक स्वयं के सिवाय अन्य कौन पदार्थ हितरूप है ? या हितकर है ? या साथ निभाने वाला है ? कोई नहीं, तब पर पदार्थ में मंगल, उत्तम, शरण की बुद्धि हटा कर एक स्वयं को ही मंगल उत्तम शरण समझो और विकल्प हटा कर सुखी हो ला । ॐ ॐ
१४- ७०८, संसार दुःख मय है और संसार क्या है ?- कीर्ति नाम की चाह, विषयों की अभिलाषा अपमान की शंका, विषयों के वियोग में क्लेश, सन्मान और विषयों के बाधकों से द्व ेष, इच्छानुसार स्वव पर की परिणति की चाह, धन वैभव आदि से सम्पन्न समझने का अहंकार ये सब संसार है सो यह संसार खुद का खुद में और