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६ - ५२६. हे आत्मन् ! क्यों दुखी है ? क्यों विवश हैं ? अपना कहीं कुछ मत मान, अपने प्रदेश गुण पर्याय ही अपने हैं, यहीं-सुख दुःख के फैसले हैं, यहीं होनहार का विधान हैं, यह ही तेरे लिये सारा जगत है, यह स्वयं सुख का भण्डार है, यहीं दृष्टि रख ।
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१०- ६७०. तुम्हें कौन सुखी कर सकता ? तुम्हारा कौन भला कर सकता ? कोई नहीं, तुम ही अपने को सुखी कर सकते
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हो तुमही अपना भला कर सकते हो अपने पर विश्वास रख, बाह्यपदार्थ की आशा दूर कर, कुछ भी तेरे सुख का साधक नहीं; तुम्हारा ज्ञानानुभव ही तुम्हारा हितकारी है । ॐ ११-६८०. इस अनित्य संसार में कोई किसी का साथी है क्या ?, फिर क्यों मूर्खता कर रहा है, आत्मा में उपयोग र जाने के अतिरिक्त किसी दशा में भी सुख नहीं है, यह निःसंदेह जान कर्म भी तूने बनाये और तू ही मिटावेगा ।
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१२-६८५. हे आत्मन् ! तू स्वयं ज्ञान स्वरूप है और सुख स्वरूप है अपना ध्यान न करके कहां कहां भूला भटकता