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[ १४२ ] ५-४४०. जिस संसार में राम लक्ष्मण से महापुरुष न रहे
वहां तू क्या राज्य करना चाहता है ? सबसे राग छोड़ केवल अकेलेपन में संतोष कर ! बाह्य द्रव्य तुझसे भिन्न हैं अतः तेरे काम आ ही नहीं सकते ।
६-४५८. मैं अपना ही अनुभव कर रहा चाहे वह रागरूप
हो या अन्य रूप, अपना ही काम कर रहा, अपने में ही फल पा रहा अन्यत्रं मानना ही दुःख में पड़ना है अतः सुख चाहते हो तो अनुभव क्रिया व फलं जहां हो उतनी ही दुनियां समझो व अन्य से वृत्ति हटाओ ।
卐ॐ ॥ ७-४५६. तुम्हारा कहीं कुछ जाता नहीं, कहों से तुममें कुछ
आता नहीं अतः पर पदार्थ. किसी परिणति में रहो तुम्हें तो हर हालत में निःशल्य रहना चाहिये
॥ ॐ 卐 ८-५०७. मान लो- अधिक से अधिक कोई धनी हो गया पर उस आत्मा को क्या मिला ? अधिक से अधिक काई शास्त्र का ज्ञानी होगया पर उस आत्मा को क्या मिला? आत्मा तो एकाकी है, अपने में तन्मय और वाह्य से भिन्न है, यदि आत्मज्ञान न पाया तो कुछ न पाया।
ॐ ॐ ॐ