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। २७ अद्वत
१-७२३. निज अद्वैत यात्मा को तको; उसे प्रसन्न (निर्मल) बनायो।
+ ॐ ॥ २-२०८. निजभाव में ठहरने वाले के विपदा का नाम भी
नहीं है और जो निजभाव से भ्रष्ट हैं उन्हें तो संपदा भी विपदा ही है।
ॐ ॐ 卐 ३-३५७. तुम सदा अकेले ही रहोगे अतः इस अकेलेपन की
जुम्मेदारी का ध्यान रखकर मन, वचन, काय की प्रवृत्ति करो।
॥ ॐ ४-४०२. किसी वाह्य द्रव्य का मुझसे सम्बन्ध नहीं अतः निज उपयोग भूमि में गैर का राज्य मत होने दे सर्व को अपरिचित के रूप में देख, तुम्हारा रत्नत्रय ही तुम्हें शान्त रख सकता है अन्य नहीं ।
ॐ ॐ ॥