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[ १३८ । बात है, पर निःशल्य रहो।
8-४२४. मनोहर ! तुम्हारे सुख का उपाय अभीक्ष्णज्ञानो
पयोग है, इसे आगमोपंयोग व अध्यात्मोपयोग द्वारा प्रवर्द्धित करते रहो, अन्य उपाय के अन्वेषणं की चिन्ता करना व्यर्थ है और अन्यत्र मन डुलाना भी अत्यन्त व्यर्थ है।
卐 ॐ ॥ १०-५०२. आत्मज्ञान ही आत्मा को रक्षक है, अत: इसे ही
देखो. इसे ही पूछो, इसे ही चाहो, इस ही में मग्न होओ, इस ही में संतुष्ट होओ, सुखी होने का यह ही उपाय है ।
११-६१७. मैं अपने ज्ञान के सिवाय और किसी को भी
नहीं भोगता हूँ; प्रत्येक पदार्थ तो ज्ञान के विषय हैं, उन का भोग तो उन्हीं में है। हां जैसा ज्ञान होता है वैसे ज्ञान को भोगता है । आत्मा के सुख आदि गुणों का भी अनुभव ज्ञान द्वारा होता है, वहां भी साक्षात् भोग ज्ञान का ही है। इसी प्रकार किसी को करता भी नहीं हूं, अपने ज्ञान को ही करता हूँ; इसलिये "ज्ञानमात्रमेवाहम्"।
फ़ ॐ ॐ