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२६ आत्मज्ञान
१-१६६. हे प्रभो ! मुझे अनन्त ज्ञान की तृष्णा नहीं, किन्तु जिस आत्मज्ञान के बिना मैं तृष्णावी हो रहा हूँ-तृष्णा से दूर रहने के अर्थ मैं आत्मज्ञान (अपने ज्ञान) को ही चाहता हूँ।
प्र ॐ ॐ २-२०१. ज्ञानी जीव प्रत्येक पदार्थ से हित को शिक्षा ग्रहण
करता रहता और अज्ञानी जीव प्रत्येक पदार्थ में चाहे वे साधु हों या असाधु हो--ऐसी कल्पनायें करता जिसमें उसका अहित हो।
३-२१३. कर्म का भय उनके होता जो कर्म का फल (संपदा
या सांसारिक सुख) चाहते हैं व पर पदार्थ की परिणति को विपदा समझते हैं, ज्ञानी जीव के ये दोनों बातें नहीं फिर उनका कर्म क्या करेगा ?
४-२३८. जो ज्ञान विश्व की कीमत करता है, उस ज्ञान की