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[ १३५ ] गुण ही मेरा धन वैभव है चैतन्य लोक का अनीति रहित परिणमन ही यश प्रतिष्ठा है; यह दृश्यमान जगत इन्द्रजाल है, माया है, क्षणिक है, भिन्न है यहाँ मेरा कुछ नहीं है।
॥ ॐ ॐ १४-८४५. हम दूसरों को तो पूरा अच्छा देखना चाहते हैं
परन्तु अपनी गलती खोज कर उसे निकालने से होने वाली पूर्णता की कुछ चिन्ता नहीं करते । सोच तो.. अपना दूसरे से पड़ेगा या अपने से ? अपने विभव को देख और सत्य प्रभुतापा।
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