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[ १३४ ] 8-४८१. जो पर्यायवुद्धि को छोड़कर ज्ञानमात्र तत्व पर
दृष्टि डालते हैं, उनके लिये जगत में कुछ भी करना शेष नहीं-उन्होंने करने योग्य कर लिया व उनसे छूटने योग्य सब छूट गया।'
ॐ ॐ ॥ १०-४८७. आत्मन् ! तुम स्वयं ज्ञानमय व आनन्दधन हो,
इस दृश्य अस्थिर जंगत् के प्रति संकल्प विकल्प करते हुए तुम्हें अपनी मूर्खता पर हँसी नहीं आती ? तुम तो ज्ञानरूप ही रहो, यहाँ तुम्हारा न कुछ है और न कभी कुछ हो सकता।
॥ ॐ ११-६०१. चिच्चमत्कार मात्र ही तात्त्विक चमत्कार है, चिच्च
मत्कार से अनभिज्ञ पुरुष ही लौकिक चमत्कार का आदर करते हैं जो स्वरूप से भ्रष्ट कर देता है।
१२-६३७. रागद्वष मोह छूट जाय केवल ज्ञान में प्रतिष्ठित
होजाऊँ इससे बढ़कर मेरा वैभव कहीं नहीं है, यह ही होओ और सब टलो-सबका उपयोग टो।
॥ ॐ ॥ १३-४६७. मेरा स्वपरिणमन ही लोक और परलोक है स्व