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[ १३३ । ४.-२३७. सुवर्ण रत्न आदि की कीमत ज्ञानविशेष (कल्पना)
के बल पर है, स्वतंत्रता से नो उनकी कीमत या कदर वही है जो पत्थर मिट्टी की है। वास्तविक विभव तो प्रोत्मगुण ही है।
म ॐ ५--३८८. स्वरूप दृष्टि द्वारा अपने को ज्ञानमात्र अनुभव करते
हुए विभाव को इस तरह भिन्न देखो-जैसे अन्य आत्मा का विभाव जाना जाता है।
६-४३७. तुम धन, वैभव, कीर्ति आदि से अपने को बड़ा न
समझो, वे तो पर वस्तु हैं; अपने को बड़ा समझो अपनी वस्तु से अर्थात् दर्शन ज्ञान चारित्र की स्वच्छता या वृद्धि से अपने को बड़ा समझो।
ॐ ॐ है ७-४५०. भगवत्स्वभावरूप निज आत्मा के गुणों में अनुराग करो, व्यवहार के काम तुम्हें शान्ति न पहुंचायेंगे।
॥ ॐ ॥ ८-४६६. अपने को इस प्रकार अनुभव करो—मैं ज्ञानपिण्ड हूं-सहजानंद स्वभावी हूँ-स्वतन्त्र हूँ--सर्वसे भिन्न है।
॥ ॐ ॥