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[ १३१ ] का लाभ न समझो तो उसके छोड़ने में संकोच करो और न देर करो।
+ ॐ 卐 २०-८७. स्वद्रव्य में स्वद्रव्यत्व का बुद्धि द्वारा ग्रहण करने
के साथ यदि परवस्तु का त्याग है तब वह त्याग या चारित्र नाम पाता है क्योंकि अनेकान्तात्मक वस्तु का स्वभाव होने से चारित्र भी अनेकान्तात्मक (ग्रहण त्याग रूप) होता है।
ॐ २१--८९२, रागद्वष का त्याग ही सच्चा त्याग है केवल भेष
तो दम्भ है और परवस्तु के त्याग से ही संतुष्ट से हो जाना मिथ्या अन्धकार है।
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